खाकी की दास्तान.

ले कर शपथ नाम के अपने देश की,
गुमान था,मुझे अपने खाकी वेष की
ना घर की फ़िक्र थी,ना ही सोचा कभी
अपने बच्चो और उनके परिवेश की....
फ़िक्र मुझे थी बस अपने देश की,
परवाह मुझे थी,जान से भी ज्यादा इस देश की..२
जब थी मेरे रूह और तन मन पर खाकी
मेरे लहू में था राष्ट्र का नाम अभी बाकी
तो क्यों हुआ यह सलूक और नाइंसाफी
क्यों पैदा हुई ऐसे नज्मों की जालसाजी
जिससे मिट गया मै ,,,और मिट गई मेरी कहानी....२
 मै सोचा था की  खाकी में हर इंसान समान होता है
क्यू कि अपने वक्त पे प्यादा भी महान होता है
पर शायद सच्चाई कुछ और थी
मुझे दिखाई ही कुछ और दी...
गर होती ना यहां कर्मो की भी पूजा
तो उसुल होता मेरे साथ भी कोई दूजा
क्यू कि कल तक मै भी ड्यूटी पर था
पर आज इस दुनिया में ही ना रहूं,ये कहां सोचा था।
पर मेरा तो ये सौभाग्य था, और जो हुआ वो दुर्भाग्य था।
मेरा खाकी मेरा अभिमान था,
खाकी वर्दी पहने मैं फौलाद था
क्यू कि भारत माता का औलाद था,
मेरा खाकी मेरा जहान था...
मेरा खाकी मेरा सम्मान था.....!
              

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