शिक्षा के उद्देश्य
शिक्षा के उदेश्यों का व्यक्ति के मानसिक तथा अध्यात्मिक विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन की पूर्णता को आत्म-प्रकाशन, क्षमता तथा अनुभव का निरन्तर वृद्धि होते हुए ही प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति का यह अध्यात्मिक विकास उसी समय हो सकता है जब शिक्षा के उदेश्य उसके जीवन की बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार बदलते रहें। इससे शिक्षा के उद्देश्यों तथा व्यक्ति के जीवन दोनों में समंजस्यपूर्ण सम्बन्ध बना रहेगा। यदि शिक्षा के उदेश्य व्यक्ति के जीवन की बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार नहीं बदलेंगे तो व्यक्ति का मानसिक तथा अध्यात्मिक विकास असम्भव है।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में उद्घोष करते हैं, ‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ । महाभारत में कहा गया, ‘नास्ति विद्यासमं चक्षुः’ अर्थात् विद्या के समान दूसरा नेत्र नहीं है । शिक्षा का सम्बन्ध इस प्रकार सीधे जीवन से जुड़ता है । जीवन का लक्ष्य और शिक्षा का लक्ष्य एक ही है, शिक्षा व जीवन एकरस हैं । जीवन की पूर्णता के प्रकटीकरण के लिए शिक्षा ही साधन है । स्वामी विवेकानन्द के प्रसिद्ध कथन, ‘‘अन्तर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण ही शिक्षा है’’ का भी यही निहितार्थ है । इसीलिए शिक्षा का दर्शन भी राष्ट्र के जीवनदर्शन पर ही आधारित होना चाहिए । देश की संस्कृति ही शिक्षा का एकमेव आधार होनी चाहिए ।
वर्तमान शिक्षा पद्धति पाश्चात्य विचार का अनुसरण कर रही है । इससे तैयार हो रही अगली पीढ़ी के लिए शारीरिक बल-सौष्ठव का विचार शिक्षा का अंग माना ही नहीं जा रहा । शारीरिक शिक्षा का पर्याय केवल खेल स्पर्धाओं को माना जाता है जिसमें केवल वे ही विद्यार्थी भाग लेते हैं जिन्हें रुचि व क्षमता भी हो और साथ ही सुविधा-साधन भी उपलब्ध हों । यदि बालक को रुचि है तो भी पाठ्यक्रम, गृहकार्य, कोचिंग-ट्यूशन, कम्प्यूटर, हॉबी क्लास और न जाने क्या-क्या, के कारण उसके पास समय नहीं । माता-पिता भी नहीं चाहते कि बच्चा खेलकुद में अपना बेशकीमती समय ‘बर्बाद’ करे, क्योंकि यह कैरियर के लिए व्यवधान उत्पन्न करेगा । सारी दौड़ पढ़ाई अर्थात् परीक्षा अर्थात् अंक अर्थात् उपाधि अर्थात् नौकरी के लिए है, उसमें अन्य अनावश्यक बातों के लिए स्थान कहाँ? जब जीवन का उद्देश्य केवल नौकरी ही रह गया हो तो इस कैरियर के राजमार्ग पर दौड़ते बालकों को ऐसे स्पीड ब्रेकर ग्राह्य नहीं, उनके माता-पिता को तो कदापि नहीं, क्योंकि इससे उनके निवेश पर Rate of return कम हो जाने की आशंका है ।
नई पीढ़ी सुकुमार बन रही है । परिवारों की आर्थिक स्थिति और भुगतान क्षमता सुधरने के कारण, पौष्टिक हो न हो, बालक की रुचि का स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध है । सुख-सुविधा के साधन हैं । भागदौड़, खेलकुद, पैदल चलना या साइकिल चलाना, इन सबकी आवश्यकता नहीं । शरीर में बल-सौष्ठव-ओज-लोच- क्षमता-सहनशक्ति आदि के विकास की आवश्यकता ही कहाँ है? और फिर इन सबके विकास के लिए आवश्यक तत्व, पौष्टिक आहार, व्यायाम, विश्राम, स्वच्छता, दिनचर्या की नियमितता आदि का विचार क्यों किया जाये? प्राणिक शक्ति के विकास के लिए आवश्यक योग-आसन-प्राणायाम आदि के लिए भी समय कहाँ है?
‘शिक्षा’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘शिक्ष्’ धातु से मानी जाती है जिसका अर्थ है ‘सीखना’ । सीखने की प्रक्रिया कर्मेन्द्रियों-ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त अनुभूतियों के आधार पर होती है, जिनको नियंत्रण करने का कार्य ‘मन’ का है । ज्ञानार्जन के लिए मन का शान्त, एकाग्र और अनासक्त होना आवश्यक है परन्तु जिस प्रकार शिक्षा और समाज का जैसा आपाधापी का वातावरण है, उसमें इस शान्तता, एकाग्रता और अनासक्ति के लिए भी स्थान नहीं है । साहित्य-संगीत-ललित कलाएँ आदि पाठ्यक्रम में तो हैं परन्तु कोई विद्यार्थी उनकी ओर जाना नहीं चाहता क्योंकि उनमें कैरियर के अच्छे विकल्प नहीं हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में उद्घोष करते हैं, ‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ । महाभारत में कहा गया, ‘नास्ति विद्यासमं चक्षुः’ अर्थात् विद्या के समान दूसरा नेत्र नहीं है । शिक्षा का सम्बन्ध इस प्रकार सीधे जीवन से जुड़ता है । जीवन का लक्ष्य और शिक्षा का लक्ष्य एक ही है, शिक्षा व जीवन एकरस हैं । जीवन की पूर्णता के प्रकटीकरण के लिए शिक्षा ही साधन है । स्वामी विवेकानन्द के प्रसिद्ध कथन, ‘‘अन्तर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण ही शिक्षा है’’ का भी यही निहितार्थ है । इसीलिए शिक्षा का दर्शन भी राष्ट्र के जीवनदर्शन पर ही आधारित होना चाहिए । देश की संस्कृति ही शिक्षा का एकमेव आधार होनी चाहिए ।
वर्तमान शिक्षा पद्धति पाश्चात्य विचार का अनुसरण कर रही है । इससे तैयार हो रही अगली पीढ़ी के लिए शारीरिक बल-सौष्ठव का विचार शिक्षा का अंग माना ही नहीं जा रहा । शारीरिक शिक्षा का पर्याय केवल खेल स्पर्धाओं को माना जाता है जिसमें केवल वे ही विद्यार्थी भाग लेते हैं जिन्हें रुचि व क्षमता भी हो और साथ ही सुविधा-साधन भी उपलब्ध हों । यदि बालक को रुचि है तो भी पाठ्यक्रम, गृहकार्य, कोचिंग-ट्यूशन, कम्प्यूटर, हॉबी क्लास और न जाने क्या-क्या, के कारण उसके पास समय नहीं । माता-पिता भी नहीं चाहते कि बच्चा खेलकुद में अपना बेशकीमती समय ‘बर्बाद’ करे, क्योंकि यह कैरियर के लिए व्यवधान उत्पन्न करेगा । सारी दौड़ पढ़ाई अर्थात् परीक्षा अर्थात् अंक अर्थात् उपाधि अर्थात् नौकरी के लिए है, उसमें अन्य अनावश्यक बातों के लिए स्थान कहाँ? जब जीवन का उद्देश्य केवल नौकरी ही रह गया हो तो इस कैरियर के राजमार्ग पर दौड़ते बालकों को ऐसे स्पीड ब्रेकर ग्राह्य नहीं, उनके माता-पिता को तो कदापि नहीं, क्योंकि इससे उनके निवेश पर Rate of return कम हो जाने की आशंका है ।
नई पीढ़ी सुकुमार बन रही है । परिवारों की आर्थिक स्थिति और भुगतान क्षमता सुधरने के कारण, पौष्टिक हो न हो, बालक की रुचि का स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध है । सुख-सुविधा के साधन हैं । भागदौड़, खेलकुद, पैदल चलना या साइकिल चलाना, इन सबकी आवश्यकता नहीं । शरीर में बल-सौष्ठव-ओज-लोच- क्षमता-सहनशक्ति आदि के विकास की आवश्यकता ही कहाँ है? और फिर इन सबके विकास के लिए आवश्यक तत्व, पौष्टिक आहार, व्यायाम, विश्राम, स्वच्छता, दिनचर्या की नियमितता आदि का विचार क्यों किया जाये? प्राणिक शक्ति के विकास के लिए आवश्यक योग-आसन-प्राणायाम आदि के लिए भी समय कहाँ है?
‘शिक्षा’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘शिक्ष्’ धातु से मानी जाती है जिसका अर्थ है ‘सीखना’ । सीखने की प्रक्रिया कर्मेन्द्रियों-ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त अनुभूतियों के आधार पर होती है, जिनको नियंत्रण करने का कार्य ‘मन’ का है । ज्ञानार्जन के लिए मन का शान्त, एकाग्र और अनासक्त होना आवश्यक है परन्तु जिस प्रकार शिक्षा और समाज का जैसा आपाधापी का वातावरण है, उसमें इस शान्तता, एकाग्रता और अनासक्ति के लिए भी स्थान नहीं है । साहित्य-संगीत-ललित कलाएँ आदि पाठ्यक्रम में तो हैं परन्तु कोई विद्यार्थी उनकी ओर जाना नहीं चाहता क्योंकि उनमें कैरियर के अच्छे विकल्प नहीं हैं ।
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