Story Of An UPSC Aspirant (अनकही कहानी -2)

       तू तो ऐसी न थी(2) 

देखने का वनवास अब खत्म हुआ,
वह भी उदासी से भरे चेहरे से,
तु  तो ऐसी ना थी....
हाँ, मैं वन में था,
तपस्या कर रहा था,
इस तपस्या का भान तो तुम्हे भी था,
पर तुमने खुद ही मेरा गला घोंट दिया,
मारिच  बनकर,
मृगतृष्णा के लिए, अपनी लालसा के लिए
अपने सुख के लिए,
भूला दिए वह, बचपन
जिसको इतिहास बनेने से कोई नहीं रोकता,
तू तो ऐसी न थी....
सबकुछ भूला दिए,
वह भी एक अदद नौकरी वाले के लिए
इसपर तुम्हारी भी तो रजामंदी होगी,
तुमने खूशी-खुशी
उसके नाम की मेहदी का वरण तो किया होगा,
पर उस रंग का क्या
जो हमदोनो की आत्मा पर लगा,
उस महक का क्या
जो आज भी मई महिने की दूपहरी में,
मेरे आस-पास अपनी खुशबू बिखेरने लगता है,
तू तो ऐसी न थी............
वादा तो किया था, तुमने
कि साथ रहेंगे,
साथ मिल बैठ कर खाएंगे
नमक रोटी ही सही,
परन्तु तुमने तो
सबकुछ भुला कर,
बेगाना बना दिया
वह भी एक अदद नौकरी वाले की खातिर
तौड़ा दिए सब सपने,
एक बात तो है
वहा भी तो मंथरा होगी
जो अपने मायाजाल में फांस ,
तुम्हे भी बड़गलाया होगा....
तुम्हारी नीति अनीति के सोच पर
कुठाराघात तो किया होगा,
पर कोई,
विदूर भी तो होगा...
पर तुमने धृतराष्ट्र बनना ठीक समझा,
तू तो ऐसी न थी.....
हाँ तू तो ऐसी न थी......... (क्रमशः)

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