कृषि कानून व विवाद
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। हालाँकि सकल मूल्य वर्धन में इसका योगदान 2019-20 में 16.5% (2014-15 में 18.2%) था, लेकिन इसके बावजूद कुल जनसंख्या के लगभग 58% के लिए यह रोज़गार का क्षेत्र है। मौजूदा केंद्र सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य की प्राप्ति तभी सरल होगी जब कृषि में विद्यमान कुछ चुनौतियों का सामना किया जाए, जैसे, संस्थागत ऋण तक किसानों की पहुँच में कमी, बीमा का कम विस्तार, कृषि में निवेश का निम्न स्तर, यांत्रिकीकरण और तकनीकों के प्रयोग में कमी आदि।
दूसरी ओर, कृषि क्षेत्र में एक और बड़ी चुनौती छोटे और सीमांत किसानों की है। 10वीं कृषि जनगणना के अनुसार, छोटे और सीमांत किसानों (2 हेक्टेयर से कम भूमि) का अंश कुल किसान जनसंख्या में 86.2% है, लेकिन कुल फसल क्षेत्र में इनका अंश केवल 47.3 % है। इस सर्वेक्षण में यह भी उल्लेख है कि 2010-11 और 2015-16 के बीच कृषि जोतों के छोटे होने की दर सबसे अधिक रही थी। साथ ही, भू-स्वामित्व का वितरण भी असमान बना हुआ है।
उच्चतम न्यायालय ने ये स्पष्ट कहा है कि भारत में भूमि सुधार, कृषि सुधार और ग्रामीण विकास परस्पर संबंधित है। इस आधार पर कृषि सुधारों को सबसे बड़ी संकल्पना के रूप में देखा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, इनमें भूमि सुधार और सकल ग्रामीण उत्पादकता बढ़ाने वाले सभी कारक शामिल हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सभी सरकारों ने कृषि विकास को ध्यान में रखते हुए सुधारों को प्रोत्साहित किया था। लेकिन ऐसे सुधार तब अत्यंत महत्वपूर्ण हो गए थे जब भारत ने 1991 में आर्थिक उदारीकरण कर बाज़ार अर्थव्यवस्था में प्रवेश किया था। हालाँकि सभी क्षेत्रों में बाज़ार का अधिकतम लाभ लेने के लिए निजीकरण लगभग अपरिहार्य हो गया था, लेकिन निश्चित रूप से विनिर्माण सहित अन्य उद्योगों को वरीयता दी गई। फलस्वरूप कृषि में निजी निवेश पर्याप्त नहीं हो सका। छोटे और सीमांत किसानों की संख्या अधिक होने के कारण उनके पास भी पूंजी पर्याप्त नहीं थी। ऐसी स्थिति में कृषि विकास को अपेक्षित गति नहीं मिल पाई।
बाज़ार का अनुभव नहीं होने के कारण भी अधिकांश किसानों को क्षति हुई और कई राज्यों में किसानों की आत्महत्या की गंभीर चुनौती उत्पन्न हो गई जो अब भी बनी हुई है। इन चुनौतियों के बावजूद पिछले दो दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाया है। वैश्विक महामंदी (2007-09) तथा वर्तमान में कोविड 19 महामारी की चुनौतियों का सामना करते हुए अर्थव्यवस्था आगे बढ़ रही है।
इसी पृष्ठभूमि में हाल ही में केंद्र सरकार द्वार बनाए गए तीन कृषि कानूनों पर किसान आंदोलन की तार्किकता पर गौर करना समीचीन होगा। जो तीन कानून सरकार ने बनाए हैं, वे हैं:
1. कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2020 [Farmers Produce Trade and Commerce (Promotion and Simplification) Act 2020]
2. कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020 [Farmers (Empowerment and Protection) Agreement on Price Assurance and Farm Services Act 2020]
3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020 [Essential Commodities (Amendment) Act 2020]
हम सबसे पहले इन कानूनों पर संवैधानिक दृष्टि डालने का प्रयास करेंगे। यह विदित है कि भारत के संविधान में संघ और परिसंघ, दोनों के गुण विद्यमान हैं। यह कहा जाता है कि भारत चरित्र में परिसंघीय जबकि आत्मा में एकात्मक है। निश्चित रूप से भारत के एकात्मक परिसंघीय ढाँचे में संघ एक आवंटनकर्ता और राज्य वितरक के रूप में शामिल हैं। इसके बावजूद चूँकि भारत के राजनीतिक ढाँचे का अस्तित्व परिसंघ पर निर्भर है, अतः उच्चतम न्यायालय ने एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994 मामले में यह कहा है कि भारत का परिसंघीय ढाँचा संविधान के बुनियादी ढाँचे का भाग है। केवल सातवीं अनुसूची में संघ और राज्य सूची के सापेक्षिक महत्व तथा संघ के राजकोषीय नियंत्रण से यह सिद्ध नहीं होता कि भारत का संविधान एकात्मक है। संविधान के अनुच्छेद 245-254 के प्रावधानों में दोनों की विधायी शक्तियां हैं और राज्य उन्हें दिए गए विषयों पर विधि बनाने के लिए स्वतंत्र हैं।
न्यायालय के इन विचारों के आधार पर तो हाल के कृषि कानूनों के संदर्भ में आलोचकों द्वारा संघ के प्राधिकार पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाना स्वाभाविक है। लेकिन हमें यह भी ध्यान में रखना है कि अनुच्छेद 245 और 246 को साथ पढ़कर न्यायालय ने आनुषांगिक शक्ति के सिद्धांत (Doctrine of Incidental Power) की व्याख्या की है।
इसके अनुसार, संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि को इस आधार पर अविधिमान्य नहीं कहा जाएगा कि उसका राज्यक्षेत्रातीत प्रवर्तन होगा। इसका अर्थ यह है कि यदि संसद राष्ट्र हित में ऐसी किसी विधि का निर्माण करती है जो उन विषयों पर है जो राज्य सूची में हैं या उसमें प्रगणित नहीं हैं तो उसे संवैधानिक या अविधिमान्य नहीं माना जाएगा।
ध्यातव्य हो कि कृषि संबंधी अधिकांश विषय राज्य सूची ने प्रगणित हैं लेकिन आनुषांगिक शक्ति के सिद्धांत के आधार कर कृषि कानूनों के निर्माण के लिए संघ के प्राधिकार पर प्रश्न चिन्ह लगाना बहुत तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।
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